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कविता

विस्मृति

प्रांजल धर


सादृश्य विधान की सारी योजना
सरकारी मेज की दराज में छूट गई है,
करौंदी के फूल की महक
किसी पर्वत से उतरते झरने के साथ
बह गई है।
 
और फूल अब शुष्क
नीरस, मृत और खंडित हो गया है -
उसका अतीत
रात के घने अन्धकार में
किसी भूखे जानवर-सा
भौंकते-भौंकते सो गया है...
 
यह क्या हो गया है ?
यह कब हो गया है ?
 
झमाझम बहती नदी ने
कलकलाना छोड़ दिया है,
उसकी नीरवता उसकी पीड़ा का
पर्याय हो गई है।
 
उसकी गति, उसके सारे ऊर्जित विचारों
की ही तरह
जंगलों की हरी पत्तियों में,
झाड़ियों में और झुरमुटों में -
ज्ञात नहीं कहाँ -
खो गई है।
 
अवश्य कहीं,
कहीं न कहीं,
विस्मृति हो गई है।
 

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